International Journal For Multidisciplinary Research
E-ISSN: 2582-2160
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Volume 6 Issue 6
November-December 2024
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बिहारी सतसई में आधुनिक नारी जीवन : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
Author(s) | Meena Verma |
---|---|
Country | India |
Abstract | बिहारी रीतिकाल के शिखर रचनाकार हैं। उन्होंने ‘बिहारी-सतसई’ काव्यग्रंथ की रचना की जिसमें 713 दोहे हैं। बिहारी सामंती कवि थे और उनका संबंध दरबार से था। उस समय दरबारों में उर्दू-फारसी के शायरों का बोलबाला था और अपनी काव्य-वक्रता से वे राजाओं को मुग्ध कर लेते थे। इसी समय कवि बिहारी का दरबार में प्रवेश होता है और वे दोहा छंद जैसे सर्वाधिक सरल छंद से अपनी कविताई की धाक सहृदयों पर जमाते हैं। उनके काव्य में विषयों की अपार विविधता है, किंतु उनका केन्द्रीय विषय है- ‘शृंगार’। शृंगार से सौन्दर्य की वृद्धि होती है और आकर्षण से प्रेम का एहसास होता है, प्रेम की चरमावस्था का प्रतिफलन रतिक्रिया में होता है। यानी गाहे-बगाहे बिहारी का प्रेम मांसल सौन्दर्य का काव्यात्मक इज़हार के रूप में उभरकर सामने आता है। बिहारी के काव्य में व्यक्त स्त्री की छवियाँ पर विचार करते हुए कुछ सवाल सामने आते हैं। पहले सवाल की उत्पत्ति विषय के परिसीमन से ही होती है कि क्या स्त्री की छवि को संपूर्णता में व्यक्त करने के लिए चार-चरण यानी दो पंक्तियों का दोहा छंद समर्थ है? और यदि समर्थ है भी तो क्या मुक्तक काव्य से ऐसी आशा की जा सकती है कि वह कवि के मन में व्याप्त स्त्री-छवि का सहज प्रतिफलन होने या हो सकने का दावा पेश करे। मेरी समझ में उपर्युक्त दोनों तथ्यों की समर्थता पर विशेष शोध की आवश्यकता है। इसके बरक्स हम देखते हैं कि स्त्री की संपूर्ण छवि को दिखाने के लिए प्रबंधकाव्य की आवश्यकता होती रही है। इसका कारण यह है कि प्रबंधात्मकता मंे ही इतना अवकाश होता है कि रचनाकार चरित्र का वर्णन करे, विकास करे। ऐसे में क्या बिहारी अपने दोहे के माध्यम से स्त्री की संपूर्ण छवि देख पाएँ अथवा नहीं। या कि उनकी भूमिका उस फोटोग्राफर की तरह तो नहीं है, जो प्राकृतिक संुंदरता को उसके भौगोलिक विशेषता के साथ दिखाने के लिए अपना कैमरा क्ल्कि करता है, किंतु उसके विकास को संपूर्णता में नहीं दिखा पाता। क्या यह दोहा छंद की असमर्थता है या फिर बिहारी की कमजोरी! यानी अपनी संपूर्णता में बिहारी के काव्य में स्त्री की कोई पूर्ण छवि नहीं बनती, बल्कि यह छोटे-छोटे शॉट्स का एक संकलन मात्र है, जिसमें किसी को साहित्यिक रस का आनंद मिलता है, तो किसी को विषय-वासना की अंगराई। ‘बिहारी-सतसई’ में स्त्री का प्रथम प्रवेश राधा के रूप में होता है जो सूरदास की राधा न होकर बिहारी की ‘राधा नागरि’ है, जिससे कवि अपनी भव-बाधाओं से मुक्ति की याचना करता है। प्रतीक के रूप में देखें तो राधा एक प्रेमिका भी है, नायिका भी है और सामान्य स्त्री भी, लेकिन सवाल उठता है कि बिहारी ने किसे चुना है? बिहारी की राधा ‘नागरी’ है जो नागरों की सभा में ही रह सकती है। ठेठ समाज जिसके लिए ‘गँवार’ की संज्ञा से विभूषित है। बिहारी बहुज्ञ रचनाकार हैं। उनकी कविता में स्त्री की छवि का एक सिरा शास्त्रीय पक्ष से जुड़ा है और दूसरा लोक पक्ष से। शास्त्रीय पक्ष के अंतर्गत नायिका भेद वाले दोहों को रखा जा सकता है। पहला भेद, स्वकीया और परकीया के स्तर पर है। बिहारी की नायिका सुशीला, कुलवंती आदि स्थापित मर्यादाओं का अतिक्रमण करती है। उनकी नायिका छलकपट नहीं करती, उनमें भावगोपन की प्रवृत्ति नहीं है। इसलिए वह जटिल चरित्र नहीं है। उनकी नायिका सतही है क्योंकि उसमें विचार का अभाव है, इसलिए वह गहराई से युक्त न होकर इठलाती हुई हमारे सामने आती है। कुछ स्थलों पर बिहारी परकीया नायिका के सहज अनुराग में स्वकीया के प्रेम का भ्रम उत्पन्न करते जान पड़ते हैं। नायिका परकीया है लेकिन उसके मन में एक ही नायक है। |
Keywords | सब ही त्यौं समुहाति छिनु, चलति सबनु दै पीठि। वाही त्यों ठहराति यह, कविलनवी लौं, दीठि |
Field | Arts |
Published In | Volume 3, Issue 6, November-December 2021 |
Published On | 2021-12-22 |
Cite This | बिहारी सतसई में आधुनिक नारी जीवन : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन - Meena Verma - IJFMR Volume 3, Issue 6, November-December 2021. |
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E-ISSN 2582-2160
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10.36948/ijfmr
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