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E-ISSN: 2582-2160     Impact Factor: 9.24

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गिरिजा कुमार माथुर के काव्य में युगानुकुल बोध

Author(s) डॉ. हरिराम आलड़िया
Country India
Abstract गिरिजाकुमार माथुर हिन्दी की नई काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि हैं। उनके हृदय पर नौ वर्ष की अवस्था में ही काव्य काव्य-संस्कार पड़ चुके थे और वे ब्रजभाषा में कविता लिखने लगे। पन्द्रह वर्ष की अवस्था में कवि सम्मेलनों वे भाग लेने लगे। ब्रजभाषा में कविता करने के उपरान्त कुछ दिनों तक छायावादी शैली पर भी कविताएं लिखते रहे। अध्ययनकाल के दौरान विक्टोरिया कॉलेज,ग्वालियर में आयोजित कवि सम्मेलन में आपकी छायावादी शैली की कविता सुनकर स्वयं माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था कि यदि तुम इस गीत के आगे अपना नाम न लिखकर महादेवी का नाम लिख दो, तो कोई पहचान नहीं सकता। इस ब्याज स्तुति को सुनकर छायावादी शैली पर रची समस्त कविताएं नष्ट कर दी तथा प्रण लिया कि मैं जब तक अपनी कोई मौलिक राह नहीं ढूंढ नहीं लूंगा, तब तक कोई कविता नहीं लिखूंगा। यह घटना सन् 1937 ई. की थी और तभी से आपने काव्य की परम्परागत राह को छोड़कर नूतन मार्ग अपनाने का संकल्प लिया। इसके उपरान्त माथुर जी ने नये प्रयोग भी आरम्भ कर दिये तथा सन् 1938 तक नये-नये प्रतीक ,नवीन उपमान आदि का प्रयोग करने में अपनी पहचान बना ली।
माथुर जी ने युगानुकुल बोध को की अपनी रचनाओं में खुलकर अभिव्यक्ति की है। कवि ने अपने युग की विषमता, पीड़ा, निराशा, थकान, बढ़ती उदासी, बेचैनी, कुण्ठा, ऊब, पराजय आदि को भली भाँति से अनुभव किया है। मानवता पर होने वाले अत्याचार एवं अनाचार के दर्शन भी किये हैं। सामा्रज्यवाद की तानाशाही और उपनिवेशवादी मनोवृत्ति को भी सुहृद कवि ने देखा है तथा जनता की पीड़ा गहराई से अनुभूत किया है। श्री माथुर ने निर्भिकता और एवं निष्पक्षता के साथ अन्याय,दुराचार और अत्याचार का विरोध किया है। उन्होंने लिखा है-
’’हमने जीवन की ज्वाला में पाप जलाया सदियों का
इस महायज्ञ से निकला है यह कुलिश नवनी अस्थियों का
मेरी मानवता पर रक्खा गिरि-सा सत्ता का सिंहासन
मेरी आत्मा पर बैठा है विषधर-सा सामंती शासन
मेरी छाती पर रखा हुआ समा्रज्यवाद का रक्त-कलश। ’’1
कवि ने मात्र शोषण और अन्याय के चित्रण के साथ-साथ उत्पीड़ित मानवता के प्रति सहानुभूति एवं संवेदना भी प्रकट की है। दुःख,दर्द और अभाव की चक्की में पिसने वाली जनता को अधिक समय तक दबा कर नहीं रख जा सकता है। पाप का घड़ा एक न एक दिन अवश्य भरता है। पद-दलित और पीड़ित जनता अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ झुकना नहीं जानती बल्कि वक्त आने पर संघर्ष एवं क्रंाति के लिए तत्पर हो जाती है-
’’इस लाली का मैं तिलक करूँ हर माथे पर
दूँ उन सबको जो पीड़ित हैं मेरे समान
दुःख दर्द,अभाव भोगकर भी जो झुके नहीं,
जो अन्यायों से रहे जूझते वक्ष तान
जो सजा भोगते रहे सदा सच कहने की
जो प्रभुता पद-आतंकों से नत हुए नहीं
जो बिलग रहे पर कुपा न मांगी घिघियाकर
जो किसी मूल्य पर भी शरणागत हुए नहीं।’’2
स्वार्थ और आप धापी के युग में प्रत्येक व्यक्ति परेशान और व्याकुल है। जीवन की जटिलताओं के कारण किसी भी व्यक्ति को दूसरे के लिए अवकाश नहीं है। जीवन में औपचारिकताओं ने घर कर लिया है जिसके कारण लोग परस्पर एक दूसरे का विश्वास खो चुके हैं। अपनी सुख-सुविधाओं से आगे किसी को सोचने का समय नहीं है। व्यक्ति का आपसी प्रेम और सद्भावनाएं संत महात्माओं के उपदेश तक सिमट कर रह गई हैं। माथुर जी को इस बात की चिंता है कि सच और झूठ में अंतर करना टेढ़ी खीर हो गया है। सम्प्रदाय,धर्म और जातिवाद का जहर आदमी नसों में घुलता जा रहा है। वर्तमान वृद्ध हो गया है और भविष्य आने से डरता है। बड़ी ही भयावह स्थिति में आज का युग पहुँच गया है। ’भटका हुआ कारवां’ कविता में सामाजिक यथार्थ की अनुभूति कवि ने इस प्रकार प्रकट की है-
’’खत्म हुई पहचान सभी की
अज़ब वक्त यह आया है
सत्य झूठ का व्यर्थ झमेला
सबने खूब मिटाया है
जातिवाद का ज़हर किसी ने
घर-घर में फैलाया है
वर्तमान है वृद्ध
भविष्यत आने से कतराता है
उठती हैं तूफानी लहरंे,तट का है आभास नहीं,
पृथ्वी है,सागर है,सूरज है, लेकिन अभी प्रकाश नहीं ।’’3
आतंकवाद की समस्या सभी देशों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। कुछ लोगों द्वारा भोली-भाली जनता का ध्यान भटकाने, निहित राजनीतिक और कूटनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु बेरोजगार तथा अशिक्षित लोगों को धर्म,जाति,सम्प्रदाय आदि के नाम पर बहका कर आतंकी बना दिया जाता है। ऐसे लोगों का कोई दीन और ईमान नहीं होता है। अपने आकाओं की खुशी के लिए कितने ही निर्दोषों का खून बहाने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती है। इसके लिए टाइम बम,मशीनगन,मानव बम,पैटाªेल बम, अपहरण आदि सभी तरह के हथियारों का इस्तेमाल करते हैं। आतंकवादी बच्चे, बूढ़े, मां, बहन, गर्भवती आदि में कोई भेद नहीं करते हैं। खून बहते हुए देखकर उनके दिमाग में होली के उत्सव जैसा जश्न मनता है। संस्कृति और सभ्यता चिंदी-चिंदी बिखर जाती है। आतंकवादी परिवेश का चित्रण कितना समसामयिक बन पड़ा है, निम्न पंक्तियोें से स्पष्ट है -
’’फैक देता ग्रेनेड
रख देता टाइमबम
भरे बाजारों में,ट्रनों,वायुयानों में
भून देता गोलियों से सड़क चलते लोगों को
बेखबर बच्चों को,ओरतों को,बूढ़ों को
फूंक देता तेल-पैट्रोल के जखीरे
पानी की टंकियों में
छोड़ता है हैजे के कीटाणु
गांवों कस्बों में जहरीला गैस
माताओं की काट लेता है छातियां
क्योंकि मातापन पुरातन है
एक साथ करता है बलात्कार
गर्भिणियों,बुढ़ियों,बच्चियों से ।’’4
Keywords .
Field Arts
Published In Volume 1, Issue 1, July-August 2019
Published On 2019-07-24
Cite This गिरिजा कुमार माथुर के काव्य में युगानुकुल बोध - डॉ. हरिराम आलड़िया - IJFMR Volume 1, Issue 1, July-August 2019.

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