International Journal For Multidisciplinary Research

E-ISSN: 2582-2160     Impact Factor: 9.24

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समकालीन कविता और बाजारवाद

Author(s) Deepak Singh
Country India
Abstract प्रस्तुत शोध-पत्र में बाजारवाद और समकालीन कविता के अंतर्संबंधों की पड़ताल की गई है|बाजारवाद वस्तु, मनुष्य, संवेदना आदि सभी चीजों को एक उत्पाद के रूप में देखता है यह इतिहास,स्मृति को नष्ट कर देना चाहता है जबकि साहित्य का कार्य भाषा के माध्यम से इतिहास, संस्कृति तथा स्मृति का संरक्षण है | इस तरह साहित्य अपने स्वरूप में बाजारवाद विरोधी है लेकिन बाजार की चमक दमक से बचा रह जाना सभी के बस में नहीं है| अतः वर्तमान साहित्यकारों के एक हिस्से में बाजारवादी प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती हैं| समकालीन कविता में कई स्वर मौजूद हैं कितने ही बाजार की भाषा बोलते दिखाई पड़ते हैं लेकिन इन्हें समकालीन कविता का मुख्य स्वर नहीं कहा जा सकता,मुख्य स्वर तो प्रतिरोध का ही है | मुक्तिबोध से शुरू करें तो धूमिल,रघुवीर सहाय,वीरेन डंगवाल,मंगलेश डबराल, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी, अरुण कमल, आलोक धन्वा, पंकज चतुर्वेदी, कुमार अम्बुज आदि सरीखे कवि मिलकर समकालीन कविता के मुख्य स्वर की रचना करते हैं|यदि एक विस्तृत फलक पर देखा जाय तो समकालीन हिन्दी कविता की राजनैतिक चेतना प्रगतिशील और भविष्योन्मुखी है|
Keywords बाजारवाद, समकालीन कविता, पूंजीवाद, स्मृति,संवेदना,चिंतन,सौन्दर्यबोध, मनोविज्ञान, उपभोक्ता, सेलिब्रेटी
Field Arts
Published In Volume 3, Issue 6, November-December 2021
Published On 2021-12-28

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