International Journal For Multidisciplinary Research
E-ISSN: 2582-2160
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Volume 6 Issue 6
November-December 2024
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गांधीवादी एवं लोक शक्ति की अवधारणा की वर्तमान भारत में प्रासंगिकता : एक अध्ययन
Author(s) | Vikram Singh |
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Country | India |
Abstract | महात्मा गांधी राजनीति के वे संत हैं जिन्होंने शक्ति की अवधारणा को लोकशक्ति की अवधारणा के रूप में परिभाषित किया और इस लोकशक्ति को नैतिक शक्ति का वृहद रूप प्रदान करने की कोशिश की। महात्मा गांधी से पूर्व तिलक ने लोकशक्ति की महिमा को समझा था ओर इसी कारण उन्होंने बंद कमरों की राजनीति को समाप्त करके लोकशक्ति कोउठाने का प्रयास किया और इसलिये उन्होंने गणेश महोत्सव व शिवाजी महोत्सव को प्रारंभ किया। क्योंकि उनका ऐसा मानना था कि जब तक जनता बड़े स्तर पर बंद कमरों से बाहर निकलकर विरोध के लिये नहीं आयेगी तब तक किसी भी हालत में राष्ट्रीय आंदोलन में न तो विजय प्राप्त की जा सकती है और न ही सक्रिय रूप से लोकशक्ति या जनशक्ति की भागीदारी को निश्चित किया जा सकता है। तिलक का यह प्रयास एक सीमा तक सफल भी रहा लेकिन तिलक क्योंकि उग्रवादी आंदोलन से सम्बन्धित थे व उदारवादियों द्वारा उन्हें रोकने का प्रयास किया गया। इस कारण वे इस लोकशक्ति की अवधारणा को एक निश्चित सीमा तक ही आगे ले जाने में सफल हो पाये। तिलक के बाद महात्मा गांधी ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने इस बात को समझा कि लोकशक्ति अपने आप में कितनी महत्वपूर्ण है। प्रस्तुत लेख में लोकशक्ति एवं गांधीदर्शन पर विस्तृत विवेचन किया गया है, साथ ही लोकशक्ति की अवधारणा को प्रभावित करने वाले कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में लोकशक्ति की अवधारणा:- भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ शोषण का युग प्रारम्भ हुआ। इसके पूर्व भारत को सोने की चिड़िया की उपमा दी जाती थी। ब्रिटिश शासकों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु भारतीयों का राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक शोषण कर उन्हें कंगाल बना दिया। निःसंदेह विदेशी शासन ने भारत के अतीतकालीन गौरव पर पर्दा डालने और उसकी छिछालेदारी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रस्तुत अध्याय में ब्रिटिश सत्ताधारियों के अत्याचारों का उल्लेख किया गया है एवं उपरोक्त अत्याचारों से मुक्ति पाने हेतु महात्मा गांधी ने लोकशक्ति द्वारा राजनीति में संघर्ष किया उसका भी विश्लेषण किया गया है। औपनिवेशिक भारत एवं परिवर्तित व्यवस्था:- 16वीं शताब्दी में भारत अपनी समृद्धि और गौरव के चरम शिखर पर पहुंच चुका था। उस समय का भारत एक ऐसा गहरा कुँआ था, जिसमें चारों ओर से संसार भर का सोना चांदी आ-आकर एकत्रित होता जाता था, पर जिसमें से बाहर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं था। भारत की इस अतुल धन सम्पदा से प्रभावित होकर यूरोप के विभिन्न देश भारत के साथ व्यापार करने हेतु आकर्षित हुए। पुर्तगाल पहला यूरोपियन देश था, जिसने भारत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये थे। इससे प्रभावित होकर डच, अंग्रेज तथा फ्रांसीसी लोग भी भारत के साथ व्यापार करने लगे। इंगलैण्ड की महारानी एलिजाबेथ ने 3 दिसम्बर, 1600ई. को एक अधिकार पत्र द्वारा अंग्रेज व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया। यही कम्पनी आगे लकर ईस्ट इंडिया कम्पनी कहलायी। इस प्रकार भारत पूर्ण रूप से पराधीनता की जंजीरों में जकड़ गया। अंग्रेजों का उद्देश्य भारत का आर्थिक व राजनीतिक शोषण करना था। उन्होंने भारतीयों की कमजोरी, सीधेपन व मूर्खता का पूरा लाभ उठाया। अतः ब्रिटिश शासकों की ‘शक्ति-राजनीति’ ने निम्न प्रकार से भारत का शोषण किया। |
Keywords | सत्य’ गांधीवादी ‘राजनीतिक शक्ति’ का प्रमुख स्त्रोत है। जो सत्य का सेवन नहीं करता, वह सत्य का बल, सत्य की ताकत कैसे दिखा सकेगा ? इसलिये सत्य की तो पूरी-पूरी जरूरत होगी। गांधी जी के अनुसार ‘सत्य अविनाशकारी है एवं सत्य एवं भगवान का न तो प्रारंभ होता है और न अंत। सत्य महात्मा गांधी की ‘शक्ति’ का आधार है। गांधी जी के सत्य के क्षेत्र में केवल व्यक्ति का ही नहीं, वरऩ समूह और समाज का भी समावेश है। |
Field | Arts |
Published In | Volume 5, Issue 3, May-June 2023 |
Published On | 2023-05-16 |
Cite This | गांधीवादी एवं लोक शक्ति की अवधारणा की वर्तमान भारत में प्रासंगिकता : एक अध्ययन - Vikram Singh - IJFMR Volume 5, Issue 3, May-June 2023. |
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E-ISSN 2582-2160
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10.36948/ijfmr
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