International Journal For Multidisciplinary Research

E-ISSN: 2582-2160     Impact Factor: 9.24

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संस्कृत साहित्य में भाग्य एवं कर्म का समन्वयात्मक विश्लेषण :

Author(s) डॉ. वन्दना मिश्रा
Country India
Abstract भाग्य एवं पुरूषार्थ दोनों का ही अपना-अपना महत्व है, लेकिन इतिहास पर दृष्टि डाली जाए तो सामने आएगा कि जीवन में पुरूषार्थ की भूमिका भाग्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। भाग्य की कुंजी सदैव हमारे कर्म के हाथ में होती है, अर्थात कर्म करेंगे तो ही भाग्योदय होगा। जब कि पुरूषार्थ इस विषय में पूर्णतः स्वतंत्र है। माना कि पुरूषार्थ सर्वोपरी है किन्तु इतना कहने मात्र से भाग्य की महता तो कम नहीं हो जाती । इन्सान द्वारा किए गए कर्मों से ही उसके भाग्य का निर्माण होता है । लेकिन कौन सा कर्म, कैसा कर्म और किस दिशा में कर्म करने से मनुष्य अपने भाग्य का सही निर्माण कर सकता है-ये जानने का जो माध्यम है, उसी का नाम ज्योतिष एवं हस्तरेखा है। स्ांसार में कुछ लोग पुरुषार्थ को ही विशेष महत्त्व देते है उनके लिए भाग्य से भी अधिक महत्त्वपूर्ण पुरुषार्थ है। वे कहते हैं अगर भाग्य से आपको कुछ भी नहीं मिलता तो आप पुरुषार्थ के द्वारा उसको अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। अतः अनेक विचारकों के अनुसार परिश्रम पर भरोसा करने वाले उद्यमियों को ही धन-सम्पत्ति, सफलता प्राप्त होती है। भाग्य ही सब कुछ है वह तो कामचोरों का ही कथन है।
Keywords मनुष्य को भाग्य से अधिक अपने भुजबल पर भरोसा हो।
Published In Volume 6, Issue 6, November-December 2024
Published On 2024-12-18
DOI https://doi.org/10.36948/ijfmr.2024.v06i06.33263
Short DOI https://doi.org/g8wkhb

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